आपने भी सुना ही होगा कि सारी बीमारियों कि जड़ हमारे पेट से जुड़ी होती है, या यूं कहे कि पेट से जुड़ी बीमारियों से होती है। वर्तमान समय की बदलती जीवन शैली और बदलते खानपान एवं बढ़ती फास्ट फूड की पसंद लोगो में अपच का कारण बन गया है जिसके कारण खाया हुआ खाना पेट में पड़े पड़े सड़ जाता है और हमारे शरीर में अनगिनत बीमारियों को जन्म देता है। नीचे इससे जुड़े कुछ बीमारियों के बारे में बताया जा रहा है।
वात ग्रस्त बदहजमी |
• वातग्रस्त बदहजमी -
खाना खाने के बाद पेट फूलना या पेट में अफ़ारा हो जाना, गैसीय स्त्रावों का उत्सर्जन तथा पेट व छाती में जलन का अनुभव-यह सब वातग्रस्त बदहजमी के कारण होता है। इसका संबंध पाचन क्रिया से नहीं, बल्कि भोजन के अवशोषण को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया से भी है।
पेट वास्तव में भोजन का अस्थाई भंडार ग्रह है, जिसमें भोजन आधा पक्का होता है तथा इसकी प्रोटीन पाचन प्रक्रिया से गुजर रही होती है। साथ ही इस भोजन में अनछुई वसाए व करीब-करीब पूरी तरह पक चुके कार्बोहाइड्रेट होते हैं। हैड्रोक्लोरिक अम्ल हानिकारक संक्रामक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देता है तथा पेट में रक्षात्मक अवरोध की तरह काम करता है।
पेट में व्यक्तिगत आधार पर भोजन संबंधी स्वभाव में अधिकाधिक विषमताओं के साथ तालमेल स्थापित करने की क्षमता होती है। इस भोजन में सभी तरह के मीठे, तेज मसालेदार, मांसाहारी, शाकाहारी खाद्य पदार्थों से लेकर काफी, चाय जैसे पेय व शराब शामिल होती हैं। लेकिन अगर व्यक्ति दूध, मछली, मांसाहारी भोजन वनडे जैसे कतिपय पदार्थों को पचाने में असमर्थ रहता है, तो वह बदहजमी का शिकार हो जाता है।
बदहजमी से पेट में गैस बनने लगती है और ऐसा लगता है कि पेट फूलता जा रहा है तथा इस में दर्द या अफारे का अथवा दोनों का प्रकोप हो रहा है।
डकारें, जोकि गैस बनने का एक अन्य लक्षण है, मुख्य रूप से पानी पीते व भोजन करते समय अधिक मात्रा में अंदर ली जाने वाली वायु के कारण या निचली ग्रास नली को पूरी तरह आराम ना मिल पाने के कारण आती है, जिसका पति परिणाम जठर ग्रासनली शोथ के रूप में निकलता है।
उपचार -
- आराम करें और धीरे-धीरे भोजन करें। भोजन की प्रकृति तथा व्यक्ति की दशा दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण है।
- गैस शरीर से बाहर निकालने के लिए पानी पिए।
- वसायुक्त खाद्य पदार्थ, चाय, कॉफी, रसदार फलों व फलों के रस, मंदिरा, धूम्रपान व उच्च प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन ना करें।
- गर्म व ठंडी सिकाई से गैस तथा पेट दर्द से छुटकारा मिलता है।
- गैस्ट्रो हैपेटिक लपेट से दर्द में आराम मिलता है।
- प्रतिदिन 45 से 60 मिनट तक पेट पर ठंडा लपेट रखना चाहिए।
- शरीर की कार्यप्रणाली की सफाई करने के लिए पहले 2-3 दिन एनिमा लेना चाहिए।
- पेट के बल लेटना तथा पवनमुक्तासन का अभ्यास करना चाहिए।
- वसा और प्रोटीन को घटाकर इंटेस्टाइनल फ्लोरा को बदलना तथा वसा रहित दही व छाछ के इस्तेमाल को बढ़ाना चाहिए।
• गैस्ट्राइटिस -
गैस्ट्राइटिस से बहुत से विकार पैदा हो जाते हैं जो अच्छी पाचन प्रणाली को प्रभावित करते हैं-जैसे जी मिचलाना, पेट में अफारा, उदीगरण, गैस, दर्द, जलन व भोजन करने के बाद महसूस होने वाली आम घबराहट। यह सारी बातें पेट की आंतरिक एवं नाजुक श्लेष्मकला अस्तर में सूजन आ जाने से होती है। उल्टी से आंशिक रूप से बचा हुआ भोजन बाहर आ जाना तथा मल में रक्त के धब्बे या रक्त आना गैस्ट्राइटिस के लक्षणों में से हैं।
औषधियों का जरूरत से ज्यादा सेवन तथा शारीरिक एवं मानसिक तनाव भी इसका कारण हो सकता है।
उपचार -
- 2-3 दिन तथा बाद में आवश्यकता पड़ने पर एनिमा लेना चाहिए।
- उदरीय अवयवों में रक्त संचार में सुधार करने के लिए प्रतिदिन दो-तीन घंटों में एक बार मिट्टी का लेप करना चाहिए।
- रोजाना ठंडे पानी से कटि स्नान करना चाहिए।
- गैस्ट्रो हैपेटिक लपेट का इस्तेमाल करके दर्द में आराम मिल सकता है।
- प्रतिदिन ठंडे पेट लपेट का इस्तेमाल करें।
- पेट पर गर्म व ठंडी सिकाई करें।
- हर दूसरे दिन गर्म व ठंडे पानी का कटि स्नान करें।
- रोग के लक्षण रहने नियमित अंतराल पर बर्फ का ठंडा दूध पीना चाहिए। भोजन नहीं करना चाहिए। बर्फ के टुकड़े चूसने से भी लाभ होता है।
- तीव्र लक्षणों के एक बार लुप्त हो जाने पर श्लेष्मकला में होने वाली जलन कम करने के लिए कदम उठाने चाहिए। आहा संबंधी नियमितता बरतनी चाहिए और थोड़ी-थोड़ी मात्रा में नियमित समय पर भोजन करना चाहिए। हानिकारक खाद्य पदार्थों (औषधियां, कॉफी, शराब, धूम्रपान इत्यादि) के सेवन से बचना भी आवश्यक है।
• डूओडेंनाईटीस (ग्रहणी शोथ) -
गैस्ट्राइटिस की तरह डुओडेनाइटिस में भी आंत के नाजुक श्लेष्मकला अस्तर में सूजन आ जाती है। इसकी वजह से पैदा होने वाली समस्याएं गैस्ट्राइटिस संबंधी समस्याओं जैसी ही होती है, सिवाय उस दर्द कि जो स्वयं पेट में ना होकर नाभि के दाहिने वह थोड़ा सा ऊपर होता है। यह डूओडेनल अल्सरेशन हो सकता है या आंतों के अन्य भागों में फैल जाने की वजह से एंट्राइटिस भी हो सकता है।
उपचार -
- उदरिय क्षेत्र में रक्त संचार में सुधार करने तथा आंतों का किण्वन रोकने के लिए ठंडे लपेट तथा मिट्टी लपेट का नियमित रूप से इस्तेमाल किया जाता है।
- प्रतिदिन 20 मिनट ठंडा कटी स्नान करने से पाचन क्रिया के क्षेत्र में मांस पेशियों की काम करने की क्षमता बढ़ती है।
- बीच-बीच में अल्पकालिक उपवास रखने तथा पर्याप्त मात्रा में पानी पीने व अपेक्षित सावधानी बरतने से आंतों के क्षेत्र में पाचन एवं परिभाषा क्षमता में सुधार होगा।
- शरीर प्रणाली की सफाई करने के लिए दो से तीन दिन तक ठंडे पानी का एनिमा लेना चाहिए।
- ठंडे व गरम लपेट, बदल बदल कर गर्म व ठंडे कटि स्नान एवं गैस्ट्रो हैपेटिक लपेटओं के इस्तेमाल से दर्द से राहत मिलती है।
- सोने से पहले उदरिय लपेट का इस्तेमाल टानिक की तरह काम करता है।
- दुग्ध आहार के साथ शुरुआत करनी चाहिए तथा बाद में नियमित अंतराल पर मसाला रहित एवं सादा भोजन करना चाहिए।
• क्षुद्रात्र (छोटी आंत) के विकार -
जैसे-जैसे हम पेट में नीचे की ओर बढ़ते हैं, हम क्षुद्रात्र पर पहुंच जाते हैं, जो तीन भागों में विभाजित होती है।
(i) डूओडिनम (ग्रहणी)
(ii) जेजूनम (मध्यांत्र)
(iii) इलियम (शेषात्र)
आंशिक रूप से पची हुई प्रोटीन, करीब-करीब पच गए कार्बोहाइड्रेट और अनछुई वसा पेट से आंतों में जाती है। यहां आंत्र-रस की मदद से यह सभी पदार्थ पूरी तरह पच जाते हैं। यह रस आंतों में होने वाले स्त्राव, पित अम्ल तथा अग्नाशय रस का मिश्रण होता है। इन पदार्थों के पच जाने पर इलियम में आंत्र अंकुर (विल्ली) नामांक विशेषकृत संरचना के माध्यम से परी पाचन क्रिया (अंतिम क्रिया) संपन्न होती है।
अगर अवशोषक पथ ठीक नहीं होता, तो कई विकार आंतों को प्रभावित कर देते हैं, जैसे डुओडेनाइटिस, ऐंटरिक ज्वर, टायफाइड, अपाव शोषण सिंड्रोम (ट्रॉपिकल स्प्रू) आदि।
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