गंगा राम पटेल और बुलाखी राम नाई काशी के अपने सफर में चलते हुए एक और नगर जा पहुंचे और वहां रात गुजारने का मन बना लिया। हमेशा की तरह पटेल जी ने बुलाखी राम को कुछ पैसे देकर अपने और घोड़े के भोजन की व्यवस्था करने को कहा।
बुलाखी राम बाजार की तरफ चल दिया, क्योंकि रात होने में अभी समय था तो बुलाखी राम ने सोचा कि क्यों ना थोड़ा नगर घूम लिया जाए यह सोचकर वह घूमते हुए राजदरबार जा पहुंचे। वहां जो कुछ हो रहा था उसे देख कर बुलाकी राम नाई आश्चर्य में डूब गए। राज दरबार में वहां का राजा एक वृद्ध ब्राह्मण से अपना सारा राजपाट उसे सौंप देने का आग्रह कर रहा था लेकिन वह ब्राह्मण बार-बार इनकार किए जा रहा था।
बुलाखी राम इसका रहस्य जानने के लिए जल्दी से जल्दी खाना पकाने का सामान खरीद कर अपने ठिकाने पर पहुंच गया।
ठिकाने पर पहुंचते ही उसने गंगाराम पटेल से कहा पटेल जी आज मैं जो नजारा देख कर आ रहा हूं अगर आप उसका रहस्य बता दे तो मान लूं कि आप सचमुच एक बड़े महा ज्ञानी हैं। इतना कहते हुए उसने राज दरबार में जो कुछ देखा था वह पूरा वृतांत पटेल को कहकर सुना दिया।
पटेल ने हर बार की तरह इस बार भी रात को खाना खाकर बुलाखी राम की इस समस्या का समाधान करने का आश्वासन दिया और कहा कि- पहले पेट पूजा कर लेते हैं फिर तसल्ली से बात करेंगे।
रात को खाने के बाद पटेल ने बुलाखी राम की जिज्ञासा को शांत करना शुरू किया। उन्होंने बताया बुलाकी राम...!
एक बार यहां के राजा के मन में यह विचार आया कि मैंने ऐसे कौन से शुभ कर्म किए थे जिनके कारण मुझे यह गद्दी मिली है। उन्हीं कारणों को जानने के लिए उसने एक दिन राज्य भर से विद्वानों को अपने दरबार में बुलाया और उनसे कहा हे विद्वान पुरुषों मैंने आप लोगों को यहां बुला कर इसलिए कष्ट दिया है, ताकि मैं अपनी एक समस्या का निराकरण आप लोगों से करवा सकूं।
विद्वानों में से किसी एक ने कहा- क्या है आपकी समस्या?
राजा ने कहा मैं यह जानना चाहता हूं कि किन शुभ कार्यों से मुझे यह राजपद मिला है यदि तुम में से कोई इस बात को बता सके तो मैं उसे मालामाल कर दूंगा ना बताने की स्थिति में उसे अपमानित कर के दरबार से बाहर निकलवा दूंगा।
राजा की यह बात सुनकर सभी विद्वान आश्चर्य में पड़ गए। वे सोचने लगे कि राजा को यह बात बताने से तो बेहतर यही है कि वे खामोश ही रहे या फिर उससे कुछ दिन की मोहलत मांग कर यहां से खिसकने में भलाई है। कहीं राजा उनकी बात सुनकर संतुष्ट नहीं हुआ तो उन्हें अपमान का सामना करना पड़ेगा। ऐसा विचार कर समय बिताने के लिए उन्होंने राजा से छ: महीने का समय मांग लिया और वहां से चले गए।
विद्वान इस चिंता में खुलने लगे कि छ: महीने के बाद वे राजा के प्रश्न का क्या उत्तर देंगे इसलिए वे सब एक बार फिर एक तालाब के किनारे एकत्र हुए आपस में इस समस्या पर विचार करने लगे।
उसी समय ना जाने कहां से एक बूढ़ा ब्राह्मण वहां आ निकला विद्वानों को चिंता में पड़ा देखकर उसने कारण पूछा तो उन्होंने बता दिया। सुनकर उस वृद्ध ब्राह्मण ने कहा- हे ब्राह्मणों, अब आप इस चिंता को छोड़ दो। मुझे राजा के पास ले चलो, मैं स्वयं उसकी बात का उत्तर दे दूंगा।
उस वृद्ध ब्राह्मण की बात सुनकर सभी ब्राह्मणों के चेहरे खिल उठे और वे शीघ्र ही उस ब्राह्मण को लेकर राज दरबार में जा पहुंचे। उन्होंने उस ब्राह्मण का राजा से परिचय कराया और कहा कि महाराज! यह वृद्ध ब्राह्मण आपके प्रश्न का जवाब देगा। राजा ने जब ब्राह्मण से पूछा तो ब्राह्मण बोला- राजन! इन बेचारे ब्राह्मणों को सताने का कोई फायदा नहीं है तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तो केवल एक ही व्यक्ति दे सकता है।
राजा आतुर हो कर पूछ पड़ा- कौन सा व्यक्ति?
यहां से कुछ सौ कोस दूर उत्तर दिशा में एक वन है। उस वन में एक वृद्ध महात्मा तपस्या कर रहा है वह राख खाता है, राख के अलावा और कुछ भी नहीं खाता और राख का ही मल त्याग करता है। वह महान दूर दृष्टा है। वही तेरे प्रश्न का उत्तर देगा।
बूढ़े ब्राह्मण की बात पर विश्वास करके राजा ने अपना राज कार्य अपने मंत्रियों को सौंप कर उस महात्मा की खोज में उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। कई दिन के सफर के बाद अंततः वह उस वन में जा पहुंचा जहां वह महात्मा तपस्या कर रहा था। राजा ने हाथ जोड़कर महात्मा की एक प्रकृति परिक्रमा लगाई और एक टांग पर खड़ा हो गया।
दो घंटे के बाद महात्मा की समाधि टूटी। उसने राजा को एक टांग पर खड़ा देखा तो पूछा- तुम कौन हो भाई और इस निर्जन वन में मेरी समाधि के निकट एक टांग पर क्यों खड़े हो?
राजा ने जब अपने वहां आने का कारण बताया दो महात्मा ने कहा- राजा मैं भी तेरे प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ नहीं हूं लेकिन यहां से पचास कोस दूर उत्तर दिशा में एक वन है। उस वन में एक महात्मा तपस्या कर रहा है। वह सिर्फ आग खाकर जीवित है। तो उसके पास चला जा मैं तेरे प्रश्न का उत्तर अवश्य देगा।
राजा को अपने प्रश्न का उत्तर अवश्य ही चाहिए था, महात्मा की बात सुनकर वह कुछ पल के लिए निराश तो अवश्य हुआ लेकिन फिर नए उत्साह के साथ महात्मा द्वारा सुझाए मार्ग पर उस साधु की तलाश में चल दिया।
शीघ्र ही उसने वन में तपस्या करते हुए उस साधु को खोज लिया। साधु समाधि में लीन था, जब उसकी समाधि टूटी तो उसने आदर पूर्ण मुद्रा में खड़े राजा की तरफ देखा। उसने राजा से वहां आने का कारण पूछा तो उसने अपनी समस्या उसे बता दी।
समस्या सुनकर उस साधु ने कहा- सुनो राजन मैं इतने दिनों श्री तपस्या कर रहा हूं। किंतु अनेक बातें ऐसी हैं जिन का रहस्य जानने में मैं अभी भी असमर्थ हूं। तेरी यह समस्या भी ऐसी है। मैं इसका रहस्य नहीं खोल सकता।
साधु की बात सुनकर राजा निराश हो गया। उसने कहा- तब तो भगवान मेरा यहां आना बेकार ही रहा मैं तो बड़ी आशा लेकर आया था कि आप मेरी समस्या का निराकरण अवश्य ही कर देंगे।
निराश मत हो राजा। उसे उदास देखकर साधु ने कहा- यह ठीक है कि मैं तेरी समस्या का निराकरण नहीं कर सकता, लेकिन मैं उस व्यक्ति का नाम अवश्य बता सकता हूं जो तेरी इस समस्या का निराकरण अवश्य ही करने में समर्थ है।
राजा ने कहा तो- आप मुझे उसका पता बता दीजिए भगवान मैं उससे भी मिलूंगा।
तो सुन साधु ने कहा- यहां से पचास मील दूर रामनगर नाम का एक शहर है। वहां रामप्रसाद नाम का एक वैश्य रहता है। उसकी पत्नी इस समय गर्भवती है। अब से दो दिन बाद उसे एक पुत्र पैदा होगा, जो कुछ ही घंटे जीवित रह कर मर जाएगा। जब वैश्य उस मृत बालक को शमशान में ले जाकर भूमि में दबा आए, तो बाद में तू जाकर उस शब्द को निकाल लेना और उसी से अपने प्रश्न का उत्तर पूछना। तेरे प्रश्न का उत्तर तुझे प्राप्त हो जाएगा।
साधु की बात सुनकर राजा रामगढ़ के लिए चल पड़ा। तय समय से पहले ही वह रामनगर पहुंच गया और वैश्य का घर खोज कर उसके घर के पास ही एक चबूतरे पर बैठ गया। कुछ ही देर में वैश्य अपने घर से बाहर निकला एक अजनबी व्यक्ति को बाहर बैठा देखकर उसने राजा से पूछा मित्र कौन हो तुम? और यहां बैठे किसका इंतजार कर रहे हो?
राजा ने बताया- मुझे प्रतीक्षा है तुम्हारे घर में जन्म लेने वाले उस नन्हे बच्चे की, जो शीघ्र ही तुम्हारी पत्नी के गर्भ से जन्म लेने वाला है।
वैश्य राजा की बात सुनकर बोला- आश्चर्य है...! भला तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरी पत्नी गर्भवती है?
राजा बोला- सेठ...! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। मुझे यह बात एक महात्मा ने बताई थी। उसने यह भी कहा था कि तुम्हारी पत्नी के गर्व से जो शिशु जन्म लेगा वह लड़का होगा लेकिन...।
राजा की ऐसी संदेश जनक बातें सुनकर वैश्य बोला- लेकिन क्या भाई...?
तुमने अपनी बात अधूरी क्यों छोड़ दी- शिशु स्वस्थ तो पैदा होगा न?
हां भाई....! खूब स्वस्थ पैदा होगा, लेकिन सिर्फ कुछ ही घंटे जीवित रह पाएगा। उसके बाद उसकी मृत्यु हो जाएगी।
अरे भाई शुभ शुभ बोलो...!
वैश्य भयभीत स्वर में बोला- इस अधेड़ आयु में तो मेरे यहां पुत्र रत्न पैदा होगा और अगर वह पैदा होने के बाद मर गया तो मेरे लिए यह बहुत दुखद बात होगी।
राजा की बात से भयभीत होकर वैश्य ने आनन-फानन में कई हकीमो और दाइयों का प्रबंध कर लिया, लेकिन जो होना था, वह तो होकर ही रहा। वैश्य की पत्नी की कोख से एक पुत्र पैदा हुआ, लेकिन मात्र चार घंटे ही जीवित रहा।
जिस घर में कुछ देर पहले खुशियों की शहनाई बज रही थी, वहां एकदम मातम छा गया। वैश्य के घर में हाहाकार मच गया।
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वैश्य ने छाती में पत्थर रखकर अपना कर्तव्य पूरा किया। उसने बच्चे के शव को कपड़े से ढंक कर उसे श्मशान में दफन कर आया। योजना अनुसार तब राजा वहां पहुंचा और उसने बालक के शव को बाहर निकाला।
आश्चर्य...!!
बाहर आते ही बालक जीवित हो गया। उसने राजा से पूछा- क्यों भाई किस कारण से तुमने मेरी चिर निंद्रा में विघ्न पैदा किया है?
राजा ने जब उससे अपनी समस्या का वर्णन किया तो उस बालक ने कहा- राजा...!!
जिस कारण से, या जिस कर्म से तुझे यह राजपद मिला है, वह एक लंबी कहानी है। सुन, इस जन्म से पहले तू पूर्व जन्म में मेरा भाई था।
तुम्हारा भाई..? सुनकर आश्चर्य से राजा की आंखें फैल गई।
हां राजा..! पूर्व जन्म में हम चार भाई थे। तब हम आश्रम में रहकर विद्या अध्ययन किया करते थे और एक साथ नगर में भिक्षा मांगने जाया करते थे। जो कुछ भी भिक्षा में हमें प्राप्त होता था, हम मिलजुल कर उसे बांट कर खा लिया करते थे। यह नियम काफी समय तक नियमित रूप से चलता रहा, लेकिन एक दिन हम लोगों से एक भारी भूल हो गई।
राजा ने उत्सुकता से पूछा- कैसी भूल?
बोल मत राजा। बालक ने कहा- बस तू मेरी बात सुनता जा, क्योंकि मेरे पास बहुत थोड़ा ही समय बचा है।
राजा खामोश हो गया। बालक ने फिर कहना शुरू किया-
राजा..! एक दिन हम भिक्षा मांगने के लिए निकले, लेकिन कहीं से भी हम लोगों को भिक्षा नहीं मिली। परिणाम यह निकला कि उस दिन हमें रात को भूखा ही सोना पड़ा।
दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ और तीसरा दिन भी हम लोगों ने भूखे रहकर ही बिताया। किसी भी गृहस्थ ने हमें भिक्षा नहीं दी, उल्टा हमें यह कहकर दुत्कार दिया कि इतने हट्टे-कट्टे होकर भी भिक्षा मांगते हुए तुम्हें शर्म आनी चाहिए। जाकर कहीं मेहनत मजदूरी का कार्य करो। उस गृहस्थ की बात सुनकर हमें बहुत शर्म आई। शर्म के मारे हम उस दिन से भिक्षा मांगने नहीं गए।
लेकिन तुझे यह स्वीकार ना था। तूने कहा कि एक ब्रह्मचारी को लज्जा कैसी..?
लज्जा को त्यागने के लिए ही तो आश्रम में गुरु जी हमें भिक्षा लाने को कहते हैं। ताकि आगे चलकर ब्रह्मचारी निराकार भाव से परमार्थ के कार्य कर सके। उसके लिए सब मानव एक जैसे बने। न कोई छोटा हो ना कोई बड़ा। मानव-मानव एक समान की भावना उसके अंदर पैदा हो जाए।
बहरहाल, उस दिन तू अकेला ही भिक्षा मांगने निकला और इतनी भिक्षा मांग लाया की जिससे चार रोटियां तैयार हो गई। हम चारों ने एक-एक रोटी बांट ली और खाने की तैयारी करने लगे।
तभी एक वृद्ध ब्राह्मण वहां पहुंचा। उसने अपने भोजन में से कुछ भोजन देने की प्रार्थना की। सुनकर मेरे बड़े भाई ने कहा-
अरे ब्राह्मण देवता...!
तुम कहां से आ टपके..?
हम तो तीन दिन से पहले ही भूखे हैं। मुश्किल से आज एक रोटी खाने को मिली है। उसे भी तुम्हें दे दूंगा तो खाऊंगा क्या राख...?
इतना कहकर उसने वह रोटी खा ली।
अब ब्राह्मण ने दूसरे भाई से थोड़ा सा भोजन देने का आग्रह किया। उसने यह कहकर रोटी देने से इनकार कर दिया कि तुझे रोटी दे दूंगा तो खाऊंगा क्या आग?
फिर उस ब्राह्मण ने मुझ से आग्रह किया तो मैंने भी टका सा जवाब दे दिया कि यदि तुझे रोटी दे दूंगा, तो मेरा क्या होगा मैं मरूंगा या जिऊंगा?
ब्राह्मण ने तब हम तीनों से निराश होकर तेरी तरफ देखा। तूने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी रोटी उस ब्राम्हण को दे दी, साथ ही यह कहते हुए क्षमा मांगी कि ब्राह्मण देवता, आज तो मैं आपको सिर्फ इतना ही भोजन दे सकता हूं। आप फिर किसी दिन हमारे यहां पधारिए, तब मैं आपका भली-भांति अतिथि सत्कार करूंगा।
सो हे राजा..! तब से हम सब अपने पूर्व जन्म में किए हुए उस कर्म का फल भोग रहे हैं। उस दिन वह ब्राह्मण तो ' एववस्तु ' कहकर चला गया और हम तीनों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। यह कहकर बालक कुछ छड़ के लिए रुका और फिर आगे बोला।
राजा जिस वृद्ध ब्राह्मण ने तुझे पहले साधु के पास जाकर उससे अपने प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए कहा था। दरअसल वही ब्राह्मण हैं। जो भोजन मांगने के लिए हमारे पास आया था, और वह पहला साधु जो सिर्फ राख खाता है, और राख का ही मल त्याग करता है। वह उस काल का हमारा बड़ा भाई है।
उसने ब्राह्मण से यह कहा था कि तुझे रोटी दे दूंगा तो खाऊंगा क्या राख..! और ब्राह्मण के शाप से तब से वह राख खाकर ही जीवित है।
पहले साधु ने तुम्हें दूसरे साधु के पास जाने का सुझाव दिया, वह दूसरा साधु दरअसल हमारा दूसरा भाई है जिस के कहे अनुसार वह केवल आग खाकर जीवित है उस ब्राह्मण का शाप उस पर भी फलीभूत हो रहा है।
अब मेरे बारे में भी सुन लो मैंने ब्राह्मण को रोटी ना देकर कहा था कि यदि मैं तुझे यह रोटी दे दूंगा तो मेरा क्या होगा मैं.. जिऊंगा या मरूंगा?
बस तभी से मैं जीता और मरता आ रहा हूं मैं नित्य किसी ना किसी के यहां जन्म लेता हूं और कुछ घंटे कुछ दिवस अथवा कुछ महीने जीवित रह कर मर जाता हूं। और तब से यह घटनाक्रम नियमित रूप से चला आ रहा है।
बालक ने आगे बताया अब राजा तू अपने विषय में भी सुन तूने अपने हिस्से की रोटी उस ब्राह्मण को दे दी और स्वयं भूखा रहा तूने अपने अतिथि धर्म का पूरी तरह से पालन किया। और उन्हीं शुभ कर्मों के कारण इस जन्म में तुझे राजा बनने का मौका मिला।
इसलिए तेरे लिए अच्छा यही होगा कि तू अपनी प्रजा की गरीब असहाय लोगों की और जरूरतमंद लोगों की भरपूर सहायता कर परोपकारी कार्य कर ताकि तेरा आगामी जीवन सुखमय बन सके।
इतना कहकर बालक एकदम चुप हो गया उसकी आंखें बंद हो गई वाणी मूक हो गई और उसकी गर्दन एक और लुढ़क गई।
राजा समझ गया कि सिर्फ इतनी देर के लिए ही यह जीवित हुआ था। और उसने बड़ी सावधानी के साथ उस बालक के शव को फिर से भूमि में दबा दिया और घोड़े पर सवार होकर अपने राजमहल में लौट आया।
गंगाराम पटेल ने इतनी कहानी सुना कर बुलाखी नाई से कहा तो यह है पूरा किस्सा बुलाखी राम
आज तुम राज दरबार में जिस दृश्य को देखकर आए थे वह इसी कथा से संबंध रखता था।
वह वृद्ध ब्राह्मण वही है जिसे राजा ने अपने पूर्व काल में एक रोटी खाने के लिए दिया था। और फिर किसी और अवसर पर आने के लिए कहा था ताकि है उसका समुचित अतिथि सरकार सत्कार कर सके।
राजा उसे अपना राजपाट देने का निवेदन कर रहा था। लेकिन ब्राह्मण बार-बार राजपाट लेने से इंकार कर रहा था।
उम्मीद है अब तुम्हारी जिज्ञासा शांत हो गई होगी अब तुम सो जाओ और मुझे भी सोने दो सुबह फिर से सफर पर निकलना है।
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