प्रतापगढ़ नामक नगर के बाजार में बुलाखीराम खाना बनाने और दूसरी जरूरत के सामान खरीद कर लौट ही रहा था कि उसने एक बहुत ही अजीब नजारा देखा।
बुलाखी राम ने देखा कि दो राजपुरुष मिलकर एक सुंदर सी स्त्री की दोनों बाहें पकड़कर अपनी-अपनी तरफ खींच रहे है। यह सब देख कर बुलाखी राम से रहा न गया। और वह मदद के लिए आगे चल कर जब उस स्त्री के पास पहुंचा तो वह स्त्री वहां से गायब हो गई।
यह पूरी घटना बुलाखी राम के सामने ही घटित हुई और वह अचंभे से भरा रह गया। और चुप-चाप हैरान हो कर वापस आ गया।
गंगाराम पटेल बुलाखी के मुंह से यह पूरा वाक्य सुनकर बोले.....।
ठीक है। अभी अपना मन थोड़ा शांत रखो। रात को सोने से पहले ही तुझे तेरे प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा अभी तो खाने-पीने की व्यवस्था कर और घोड़ों को दाना खिला।
यह कहते हुए गंगाराम पटेल शौच आदि नित्य कर्म को निपटाने चल दिए।
रात को जब दोनों भोजन कर आराम से बैठे थे तब पटेल ने कहा-
बुलाखीराम...!
यहां से कुछ सौ कोस दूर वीरमगढ़ नाम का एक नगर है।
इस नगर में वीरमदेव नाम का एक राजा राज करता था। वीरमदेव आयु में पूरी तरह से युवा था। अभी उसने विवाह भी नहीं किया था। वह सही अर्थ में एक अच्छे आचरण वाला प्रजा पालक राजा था उसकी प्रजा भी उसे बहुत चाहती थी।
राजा वीरमदेव का एक मंत्री बहुत दुष्ट था। वह राजा के सामने तो बड़ी मीठी-मीठी बातें किया करता था, लेकिन पीठ पीछे उसकी बुराई करता था। उसने गुप्त रूप से पड़ोसी देश के राजा के साथ संपर्क बनाया हुआ था। पड़ोसी देश के राजा ने उसे वादा किया हुआ था कि यदि वह वीरम गढ़ पर उसका अधिकार करवा देगा तो वह उसे बहुत सारा धन सोना और जमीन उपहार में देगा, इसके साथ साथ उसे अपने राज्य का प्रधानमंत्री भी बना देगा।
इसी लालच में वह दुष्ट मंत्री राजा वीरमदेव के राज्य की गुप्त सूचनाएं चोरी छुपे दुश्मन देश तक पहुंचाता रहता था।
इन सभी सूचनाओं के आधार पर एक दिन अचानक उस पड़ोसी राजा ने वीरमदेव के नगर वीरम गढ़ पर हमला कर दिया और इससे पहले कि राजा वीरमदेव की सेना सावधान होती,उसी मंत्री की सहायता से पड़ोसी राज्य की सेना ने नगर पर अधिकार कर लिया। तब राजा के सैनिक जी जान से राजा के महल की रक्षा करने में जुट गए। राजा वीरमदेव स्वयं हथियार लेकर शत्रु से जूझने निकला, लेकिन तभी उसके एक वफादार घायल सैनिक ने उसका रास्ता रोक कर उसे कहा - राजन...! बाहर मत जाइए।
नगर पर शत्रुओं का अधिकार हो चुका है। और अब दुश्मन के सैनिक तेजी से महल की तरफ अपना अधिकार जमाने के लिए बढ़ते चले आ रहे हैं। स्थिति अब बहुत ही बिगड़ चुकी है ऐसे में आप किसी तरह बचकर यहां से चले जाइए।
राजा बोला - सैनिक..! बचकर जाऊं भी तो कैसे महल से बाहर जाने का एकमात्र रास्ता यही द्वार है।
सैनिक ने कहा - नहीं राजन, महल से बाहर जाने का एक गुप्त द्वार भी है। मैं उस मार्ग को जानता हूं। वह गुप्त द्वार एक सुरंग का है। जिसका सिरा यहां से दस कोस दूर जंगल में निकलता है।
मैं आपको उस गुप्त द्वार को दिखाए देता हूं। आप उसी मार्ग से बाहर की तरफ चले जाइए। ऐसा कहकर वह सैनिक राजा को एक कक्ष में ले गया और उस कक्ष में बना एक गुप्त द्वार दिखा दिया। राजा जब उस गुप्त मार्ग के जरिए सुरंग में प्रवेश कर गया तो पीछे से उस सैनिक ने बड़ी सावधानी के साथ उस गुप्त द्वार को वापस बंद कर दिया।
तभी महल के दरवाजे पर मारो काटो का शोर और जोरो से उठने लगा। सैनिक भी अपनी तलवार उठाए शत्रु से जूझने के लिए मुख्य द्वार की ओर दौड़ पड़ा, लेकिन वह अधिक दूर नहीं जा पाया।
उसके शरीर से इतना खून निकल चुका था। कि उसमें अब आगे बढ़ने की शक्ति नहीं बची थी। वह लड़खड़ा कर भूमि पर गिर पड़ा। तभी बाहर शत्रु भारी संख्या में आ पहुंचे और कुछ देर के संघर्ष के बाद महल पर अपना कब्जा जमा लिया।
उधर, सुरंग के रास्ते राजा वीरमदेव लगातार आगे बढ़ता जा रहा था। सुरंग में अंधकार था अंधेरे में उसने कई जगह ठोकरें खाई, कई स्थानों पर गिरा और अनेकों जगह पत्थर उसके सिर से टकराए लेकिन वह किसी तरह सुरंग के दूसरे मुहाने तक पहुंच गया।
वह बाहर निकला तो स्वयं को एक जंगल में पाया। घनघोर जंगल, हिंसक पशुओं का डर राजा प्यास से व्याकुल हो रहा था। उसने दाएं-बाएं निगाहें दौड़ाई कि शायद कोई पानी का स्त्रोत मिल जाए, लेकिन उसे कोई नदी या तालाब दिखाई नहीं दिया। तभी वह पानी की तलाश में आगे बढ़ता रहा। जंगल लगातार घना होता जा रहा था। काफी दूर चलने के बाद आखिरकार व एक छोटे से मैदान में जा पहुंचा। उस मैदान में एक बहुत ही खूबसूरत दो मंजिला मकान राजा को बना हुआ दिखाई दिया।
उस मकान को देखकर राजा की हैरत बढ़ गई। कौन रहता है। इस मकान में?
किसने इस बीहड़ जंगल में बनवाया होगा यह खूबसूरत मकान।
कहीं यह मकान किसी शत्रु का तो नहीं होगा? यही सारे प्रश्न सोचता हुआ राजा उस मकान की ओर बढ़ गया।
राजा उस मकान के दरवाजे पर पहुंच कर जोरो से आवाज लगाता है - कोई है...? कोई है....?,
लेकिन उसे कोई उत्तर नहीं मिलता। कुछ देर और आवाज लगाने के बाद जब कोई उत्तर ना मिला तो वह मकान का दरवाजा खोल कर अंदर चला गया। मकान बाहर से जितना सुंदर दिखाई पड़ रहा था, अंदर से उससे कहीं गुना ज्यादा खूबसूरत था।
कमरे में एक मखमली बिस्तर बिछा हुआ था। थका हारा राजा उस बिस्तर पर जाकर बैठ गया। फिर वह उठा और सीढ़ियां चढ़कर मकान के दूसरी मंजिल पर पहुंच गया वहां भी एक बहुत ही बड़ा और सुंदर कमरा बना हुआ था जिसमें उपयोग की सारी चीजें रखी हुई थी।
राजा ने सबसे पहले तो पानी पीकर अपनी तृष्णा को शांत किया फिर नीचे उतर कर उसी पलंग पर आकर चुपचाप लेट गया। राजा बहुत ही थकान महसूस कर रहा था इसीलिए जब एक बार उस बिस्तर पर लेटा तो उठा ही नहीं उसे भी यह पता नहीं लगा कि ना जाने कब उसे नींद आ गई।
राजा ना जाने कितनी देर सोता रहा। आंख खुली तो देखा कि सारा कमरा एक स्वर्णिम आभा से दमक रहा है। वह रोशनी किसी दीपक कि नहीं थी वह तो उन खंभों से निकल रही थी जिनके ऊपर मकान का ऊपरी हिस्सा टिका हुआ था।
राजा उसे देख कर अभी आश्चर्य कर ही रहा था कि तभी घुंघरू की आवाज बज उठी और देखते ही देखते उसके बिस्तर के पास एक बेहद सुंदर रूपसी प्रकट हो गई।
हे भगवान...! मैं किस मुसीबत में आप फंसा यह तो कोई माया महल है और यह यह सुंदरी या तो डायन या चुड़ैल है, या फिर कोई जादूगरनी जो अपने जादू से इतनी खूबसूरत बनी हुई है।
राजा ऐसा विचार कर ही रहा था कि वह सुंदरी जैसे उसके मन के विचारों को समझ गई। वीणा की झंकार जैसे मधुर स्वर में उसने कहा घबराओ मत अजनबी। यहां तुम सुरक्षित हो।
राजा ने कांपते हुए स्वर में पूछा- लेकिन आ... आप कौन हैं? और आपका यह माया महल?
अजनबी, मै दानव पुत्री हूं। मेरा नाम दानेशी है। यह मकान मेरे पिता का बनाया हुआ है। एक राक्षस से युद्ध करते समय मेरे पिता की मृत्यु हो चुकी है। वह राक्षस मेरे रूप का दीवाना है, वह हर हालत में मुझे पाना चाहता है। इसलिए उसके डर से दिन में तो मैं अदृश्य हो जाती हूं और रात के समय यहां आ जाती हूं। दानव कन्या ने स्वयं ही अपना परिचय दिया।
तभी राजा ने भी अपना परिचय दिया और कैसे उस पर मुसीबतों का पहाड़ आ पड़ा है किस परिस्थिति में उसने अपना राजपाठ छोड़ा और जान बचाने के लिए उसे भागना पड़ा यह सब उस दानव कन्या को बताया।
राजा की बात सुनकर दानव कन्या ने कहा -घबराओ नहीं जब तक तुम्हारा विपत्ति काल चल रहा है तब तक तुम यहीं रहो यहां आवश्यकता यह एक सामग्री मौजूद है।
ऐसा कहते हुए वह राजा का हाथ पकड़कर बाहर ले आई उस चौरस मैदान की ओर उसने कोई मंत्र बुद बुदाते हुए हाथ से कोई संकेत किया और देखते ही देखते पूरा मैदान किसी भव्य राज महल में परिवर्तित हो गया। खूबसूरत बगीचे, नमोरम फव्वारे, दास दासियां सब ना जाने कैसे उस महल में प्रगट हो गए उस राजमहल के सामने वह मकान बहुत ही साधारण लगने लगा। दनेशी उसके हाथ में हाथ डालकर उसे अंदर ले आई और बड़े प्यार से पलंग में बिठाकर बोली - राजन..! आपको भूख लगी होगी। पहले भोजन कर लीजिए। बातें तो बाद में होती रहेंगी।
ऐसा कहकर दानेशी ने ताली बजाई। ताली बजते ही ना जाने कैसे उस कमरे में भोजन की थालियां लिए अनेकों सेविकाएं प्रकट हो गई। दानेशी ने तब राजा वीरमदेव को बड़े प्यार से अपने हाथों से खाना खिलाया। भोजन बहुत स्वादिष्ट था। हालांकि वह खुद राजा था और उसके महल में भी भोजन की बहुत अच्छी व्यवस्था थी लेकिन आज जैसा भोजन उसने पहले कभी ना खाया था, उसके महल का भोजन तो इसके आगे बेस्वाद था।
वहां रहते रहते दोनों में प्यार हो गया। एक दिन अग्नि को साक्षी मानकर दोनों ने विवाह कर लिया और दोनों पति-पत्नी के रूप में वहां रहने लगे।
जैसा कि मानव स्वभाव है, हर मानव अपने जीवन में विविधता चाहता है। एकरसता उसे बोर कर देती है। यही कुछ राजा वीरमदेव के साथ हुआ। महीनों तक एक ही स्थान पर रहते हुए राजा उकताने लगा।
तो एक दिन राजा अपनी पत्नी दानेशी से बोला - प्रिये! तुम्हें तो तंत्र मंत्र विद्या का ज्ञान है, तुम जब चाहे रूप बदलकर अथवा अदृश्य होकर जहा भी चाहो चली जाती हो, लेकिन मैं तो एक साधारण इंसान हूं। मैं इस निर्जन स्थान में एक जगह रहते रहते बहुत उकताहट महसूस कर रहा हूं। मेरी इच्छा है कि कुछ दिनों के लिए हम निकट के किसी बड़े नगर चलें। साधारण व्यक्तियों की तरह रहे। नए नए लोगों से मिले, उनके जीवन के विषय में जाने। वार्तालाप के जरिए कुछ उनसे नई बातें सीखे, कुछ अपनी बातें उन्हें सिखाएं। कहो क्या विचार है इस विषय में तुम्हारा..?
दानेशी ने आशंका जताई, मुझे तो कोई एतराज नहीं है लेकिन तुम पर कोई संकट ना आ जाए।
राजा ने कहा-कोई संकट नहीं आएगा और फिर आ भी गया तो वीरता पूर्वक उसका मुकाबला कर लेंगे।
इस तरह दानेशी को राजी करके राजा वीरमदेव उसे इसी शहर में कुछ दिन घुमाने के लिए ले आया। दो दिन खूब आराम से बीते। उन दोनों ने खूब सैर सपाटा किया। नए-नए स्थान देखें। ढेरों अच्छी अच्छी चीजों की खरीदी की, लेकिन तीसरे दिन उनके सामने एक संकट आ खड़ा हुआ।
हुआ यूं कि- जब वह दोनों खरीदी करके एक दुकान से बाहर निकल रहे थे तो वहां के राजा की नजर उस दानव कन्या पर पड़ गई और उस पर मोहित हो उठा। वह घोड़े से नीचे उतरा और दानेशी के निकट पहुंच कर उससे प्रणय निवेदन करने लगा। यह देख कर राजा वीरमदेव को क्रोध आ गया। उसने राजा से कहा कि यह स्त्री मेरी पत्नी है और आपको किसी विवाहिता स्त्री से प्रणय निवेदन करने का कोई हक नहीं है। बस, इसी बात पर उन दोनों में विवाद होने लगा।
राजा ने दानेशी का बाजू थामा और उसे खींचकर घोड़े पर बिठाना चाहा, लेकिन तभी उसके पति वीरमदेव ने उसका दूसरा बाजू थाम लिया। अब हालत ऐसी थी कि एक ओर से वीरमदेव दानेशी का बाजू अपनी और खींच रहा था तो दूसरी ओर से नगर का राजा उसे अपनी ओर खींच रहा था। दानेशी के लिए स्थिति विषम हो गई। और तब उसने अपने तंत्र मंत्र का बल उपयोग किया और देखते ही देखते अदृश्य हो गई।
कहानी को समाप्त करते हुए गंगाराम पटेल ने कहा- कुछ समझे बुलाखीराम..?
आज तुमने जो दृश्य देखा था वह उसी समय का था वह स्त्री जो तुम्हारे देखते ही देखते अदृश्य हो गई थी वह दानव कन्या दानेशी थी। और उन राज पुरुषों के विषय में तो तुम जान ही चुके हो। अब तान कर सो जाओ सुबह उठकर फिर दूसरे नगर की यात्रा शुरू करनी है।
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